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बाजे पायलियाँ के घुँघरू

कन्हैयालाल मिश्र

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2000
पृष्ठ :228
मुखपृष्ठ :
पुस्तक क्रमांक : 422
आईएसबीएन :81-263-0204-6

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सहज, सरस संस्मरणात्मक शैली में लिखी गयी प्रभाकर जी की रचना बाजे पायलियाँ के घुँघरू।

मैं भी लड़ा, तुम भी लड़े, पर जीता कौन?


मेरे एक अभिन्न मित्र थे, थे इसलिए कि अब वे इस दुनिया में नहीं हैं। हम दोनों आपस में इतने घुल-मिल गये थे कि दो होकर, दो दिखाई देकर भी, दो न थे।

दुनिया का स्वभाव है कि ऐसा मेल उसे भला नहीं लगता और इस दुनिया में ही कुछ है, जो मौक़े की तलाश में रहते हैं कि कब इनके मनों में खटाई पड़े।

मेरे मित्र की पत्नी मर गयी और मेरे कुटुम्ब की एक कन्या के रिश्ते को लेकर हम दोनों में खासा खिंचाव आ गया। मैंने कोशिश भी की पर खिंचाव यही नहीं कि ढीला नहीं पड़ा, यह भी कि उसमें दिन-दिन तनाव आता गया। अब हमारा मिलना-जुलना और बोलचाल भी बन्द। यारों ने इसका लाभ उठाया और उन्हें अपने हाथों में ले लिया।

एक दिन विश्वसनीय समाचार मिला कि वे मुझ पर यह दीवानी दावा करने वाले हैं कि मैंने उनकी स्वर्गीया पत्नी का धरोहर रखा तीन हज़ार का ज़ेवर मार लिया है। सुनकर गुस्सा भी आया, और हँसी भी आयी।

समय की बात, उसी दिन शाम के झुटपुटे में मुझे मिल गये वे और बचकर, आँख बचाकर, एक तरफ़ को निकलने लगे, पर मैं क्यों चूकता। मैं उनके सामने जा टिका और कन्धे हिलाकर उनसे कहा, “अरे भाई, अभी तो दावा ही लिखा गया है, अभी से बचकर निकलने लगे तो आगे क्या करोगे? हमने तो यहाँ तक का इरादा बाँध लिया है कि मुक़दमा जमकर लड़ेंगे और तुम्हें ही जेल भिजवाकर हटेंगे, पर मित्रता का तक़ाज़ा तो यह है कि तुम्हें ही जेल हो जाए तो मैं तुम्हारी और तुम्हारी बच्ची की ख़बर रखू और मुझे जेल हो जाए तो छूटने के दिन तुम ही दरवाज़े पर मिलो, पर तुम तो अभी से साथ छोड़ रहे हो !"

सुनकर उनका खून जम-सा गया। मेरा हाथ पकड़कर बोले, “घर तक चलो" और घर पहँचते ही मेरे पैर पकड़कर रोने लगे। मैं भी रो पड़ा और संक्षेप में बात यह हुई कि हम दोनों फिर ज्यों के त्यों एक हो गये।

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    अनुक्रम

  1. उग-उभरती पीढ़ियों के हाथों में
  2. यह क्या पढ़ रहे हैं आप?
  3. यह किसका सिनेमा है?
  4. मैं आँख फोड़कर चलूँ या आप बोतल न रखें?
  5. छोटी कैची की एक ही लपलपी में !
  6. यह सड़क बोलती है !
  7. धूप-बत्ती : बुझी, जली !
  8. सहो मत, तोड़ फेंको !
  9. मैं भी लड़ा, तुम भी लड़े, पर जीता कौन?
  10. जी, वे घर में नहीं हैं !
  11. झेंपो मत, रस लो !
  12. पाप के चार हथियार !
  13. जब मैं पंचायत में पहली बार सफल हुआ !
  14. मैं पशुओं में हूँ, पशु-जैसा ही हूँ पर पशु नहीं हूँ !
  15. जब हम सिर्फ एक इकन्नी बचाते हैं
  16. चिड़िया, भैंसा और बछिया
  17. पाँच सौ छह सौ क्या?
  18. बिड़ला-मन्दिर देखने चलोगे?
  19. छोटा-सा पानदान, नन्हा-सा ताला
  20. शरद् पूर्णिमा की खिलखिलाती रात में !
  21. गरम ख़त : ठण्डा जवाब !
  22. जब उन्होंने तालियाँ बजा दी !
  23. उस बेवकूफ़ ने जब मुझे दाद दी !
  24. रहो खाट पर सोय !
  25. जब मैंने नया पोस्टर पढ़ा !
  26. अजी, क्या रखा है इन बातों में !
  27. बेईमान का ईमान, हिंसक की अहिंसा और चोर का दान !
  28. सीता और मीरा !
  29. मेरे मित्र की खोटी अठन्नी !
  30. एक था पेड़ और एक था ठूंठ !
  31. लीजिए, आदमी बनिए !
  32. अजी, होना-हवाना क्या है?
  33. अधूरा कभी नहीं, पूरा और पूरी तरह !
  34. दुनिया दुखों का घर है !
  35. बल-बहादुरी : एक चिन्तन
  36. पुण्य पर्वत की उस पिकनिक में

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